Saturday, June 12, 2010

शिक्षा : दिवास्वपन

सलाम साथियों

अभी हाल ही में मैंने एक पुस्तक जिसका नाम "दिवास्वपन" उसको बहुत ध्यान से पढ़ा मुझे उस किताब में कही बातें बहुत अच्छी लगी और मैं एक सपनों की दुनिया में खो गया और एक ऐसे स्कूल और शिक्षा पद्धति की परिकल्पना करने लगा जो की बिलकुल किताब की तरह ही थी, और जो सब गिजु भाई चाहते थे शिक्षा को लेकर उसी अनुसार सब चल रहा था, बच्चों को जो विषय अच्छा या मन कर रहा है उसी की पढाई हो रही है, बच्चे जो चाहते है उसी अनुसार सब चल रह था (पढाई को लेकर)।

अचानक मेरी नीद टूटी और मैं अपने सपने से बाहर आया। और मैं सोचने लगा क्या यार ये सब हो सकता है। क्यों की मैं भी करीब २ साल से बच्चों को पढ़ने से जुदा हुआ हू और मुझसे मेरे साथियों ने ये किताब पढने के लिए कंहा था और मुझे नौकरी पर रखते समय ये कंहा गया था की आप इन किताबो को जरुर पढ़ ले। मैं किताब पढ़ कर सोचने लगा, की क्या मेरे वरिष्ट साथियों ने ये किताब नहीं पढ़ी, या किताब पढ़ कर उन्होंने उसको अमल नहीं किया, अगर इनमे से कोई भी एक कारण सही है तो उन्होंने मुझे वो किताब पढने के लिए क्यों कंहा ? मुझे इस सवाल का उत्तर नहीं मिला। मुझे एक चीज आज तक समझ में नहीं आती की हमको बताया तो जाता है की ऐसा करना चाहिए और जब करने जाते है तो हमको कंहा जाता है की क्या यार क्या कर रहे हो इससे भी कुछ होगा.......

साथियों मैं अभी अपने सवालो के उतार नहीं ख़ोज पाया हू अगर आप लोगों के पास मेरे सवालो के उत्तर हो तो जरुर बताएं।

Wednesday, June 9, 2010


बाल कविता : एक मकान में चार दुकान।

एक मकान में चार दुकान।
बनते थे सब में पकवान।।
चारो दुकानों में मोटे हलवाई।
करते रहते दिन रात लड़ाई॥
लड़ाई में क्या होते थे मुद्दे।
दुकान में सौदे हो जाते थे मद्दे ॥
चारो दुकानों में सन्डे को होता था अवकाश।
उस दिन चारों हलवाई नहीं करते थे बकवास॥
एक मकान में चार दुकान।
बनते थे सब में पकवान॥

लेखक : ज्ञान कुमार
कक्षा : सात